Tuesday 15 November 2011

'जीवन , नभ से पवन के बीच'




नभ 
जब क्रोधित होता है तो
मेघ  बन कर सूर्य पर छा जाता है
उग्र प्रेमिका की  तरह
सूर्य के अनुनय विनय पर
झम-झम कर बरस जाता है
प्रेम में उन्मत्त रमणी की तरह--


सागर 
जब उद्विग्न होता है तो
ज्वार बन  तट तोड़कर धरा पर फैल  जाता  है
पिता के आक्रोश की तरह---
जब धरा से प्रेम करता है तो
 भाटा   बनकर पहलु में सिमटकर शांत हो जाता है
आसक्त प्रेमी की तरह--
जब उदार होता है तो
सभी नदियों का जल समेत लेता है
परिवार के मुखिया की तरह--


पवन
जब निराश होती है तो
आंधिया  बन बनों को भी धरा पर लिटा देती है
असंतुष्ट पत्नी की तरह--
जब विनम्र होती है तो
मलयज बन शीतलता का संचारकर देती है
सहृदय बहन की तरह--
जब करुणामयी होती है तो
जेठ की दुपहरी में भी मद्धम मद्धम बहती है
प्यारी माँ की तरह--














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