Wednesday 13 June 2012


एक टुकडा रात

सो न पाई रात
कल सुबह तक
चाहती थी मिलन सुबह से
मुझे पता तब चला
जब ऊषा  की किरणें
अतापता करने आई मेरे बिस्तर तक –
उस सलोनी रात का
जो सो न पाई थी
अमावस में अपने प्रियतम का –
कल चांद-
चांदनी समेट कर
चला गया दूर परदेश में
मुझे पता तब चला जब
ओस के मोती
वाष्प बनकर उड गये
बादल की बूंदे बनने आकाश तक-
चांद की चांदनी का पता पूछते-पूछते,
उस रात
जो सो न पाई थी
अगले  सुबह तक
चाहती थी मिलन सुबह से---
गडरिया खोल कर अपनी बकरियां
चल पडा उस चरागाह की और
एक डंडा हाथ में लिए व डाले चादर कांधे पर
जंहा से वह कल शाम को आया था
मुझे पता तब चला
जब पता पूछता मेमना आया
अपनी मां का
जो बिना पिलाए दूध चल पडी थी चरने
उस सलोनी रात में
जो चाहती थी मिलन सुबह से ।

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