Wednesday 3 June 2015

बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे ... -------------------------------------

मित्रो ,यह एक कविता लेखन में नया प्रयोग है जो आ. जयप्रकाश मानस जी से प्रभावित होकर किया है.
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जब भूख ने आंते मरोड़ी
जब बीमार ने खाट तोड़ी
कमर में गिलट की करधनी जा गिरवी पड़ी
फिर भी बोली ये पायल निगोड़ी
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में ...झुमका गिरा रे ...
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जब बचुआ की कमीज फटी
जब ददुआ की मिटटी की चिलम टूटी
जब अम्मा की धुएं से अँखियाँ फूटी
फिर भी मुस्कराकर बोली ये काजल नाशपिटी ..
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में.... झुमका गिरा रे ....
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जब सत्ता ने आश्वासन दिया
जब नेता ने भरा जनता के पैसे से अपना बटुआ
जब इंजीनियर ने फर्जी मनरेगा रजिस्टर में अंगूठा लगा दिया
पति को सूखी रोटी खिलाकर पत्नी ने खुद पानी पिया
फिर भी बोली धरती के बिस्तर पर चूड़ियाँ
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में .....झुमका गिरा रे ..
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जब वोट के लिए ऊँगली रंगी
जब बदलाव के लिए हुंकार भरी
जब वजीरों को चौराहे पर गाली पड़ी
कीचड़ से उठकर संसद की दालान में उतरी
फिर भी बोली हवा से टकराकर कानों की बालियाँ
झुमका गिरा रे ...बरेली के बाजार में .....झुमका गिरा रे...
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मगर किसका ?
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रामकिशोर उपाध्याय

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